अब तो सच्ची बात कहने से भी घबराते है लोग
क्या हुई जाती है दुनिया क्या हुए जाते हैं लोग
चलने वाले तो पहुंच जाते है मंजिल पे जकी
सोचने वाले फ़क़त रास्ते मे रह जाते हैं लोग
आशिकी का है कहाँ , अब तो सियासी दौर है
कत्ल करके भी सज़ा से साफ बच जाते हैं लोग
फ़िक्र -ओ - फन, शेर- ओ -अदब है ज़िंदगी के वास्ते
इस हकीक़त को भी लेकिन अब तो झुट्लाते है लोग
ख़ुद बढ़ा देते हैं पहले मुजरिमो के होसले
बोख्लाते हैं बहुत जब मात खाते हैं लोग
अब कहाँ बाक़ी है दुनिया मे चलन ईसार कअ
अपने मतलब के लिए किस्सों को दोहराते हैं लोग
This ghazal is written by my father Mahmood Zaki
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